Monday, 16 March 2009

सूना आँगन, सूना गलियारा है

सूना आँगन, सूना गलियारा है

सूना पनघट, सूना हर किनारा है

कभी खेलती थी ज़िन्दगी यहाँ पर

कभी साँस लेती थी खुशी यहाँ पर

आज बस बंजर हर नज़ारा है

वीरानियों का पसरा तमाशा है।

कभी यहाँ होती थी अठखेलियाँ

कभी यहाँ नाचती थी कठपुतलियां

कभी यहाँ मदमस्त हो नाचते थे मोर

कभी यहाँ होता था बच्चों का शोर

आज सूखे पेड़ों का राज है

सूना आँगन, सूना गलियारा है।

काँटों भारी पगडंडी के छोर पर

दूर एक झोंपड़ी के दरवाज़े पर

दो बूढ़ी आँखों का बसेरा है

निराशा में डूबी एक आशा का गुज़ारा है

ज़िन्दगी एक अजब तमाशा है,

सूना आँगन, सूना गलियारा है।

बेहाल भारत का हर गाँव है

अवनति की ओर बढ़ता इंसान है

भूल गया है अपनी पहचान को

बस शहरों में दिल लगा कर बैठा है

गैरों में अपनों को तलाशने पर आमादा है।

जिस गाँव में जीवन बिताया

जिस मिट्टी ने जीना सिखाया

जिस पनघट ने अमृत पिलाया

जिस वृक्ष ने फल खिलाया

आज वहीं वीरानगी, अंधेरा है

सूना आँगन, सूना गलियारा है।

सब कहते हैं- हम आज में जीते हैं

पर क्या हम कल को भुला सकते हैं

हमारी संस्कृति को भूल सकते हैं

अपनी धरोहर को मिटा सकते हैं

शायद कभी तो कोई ये समझेगा

फिर शायद सूना आँगन, सूना गलियारा 'न ' रहेगा।

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