Wednesday 3 November, 2010

एक दीप मेरा हो

दीपों की इस अवली में एक दीप मेरा हो

साँसों की लड़ियों में एक ज्वाल कैद हो

अंधकार से लड़ती एक अंतर्जोत हो

ठहरा सा हर पल मेरा दैदीप्यमान हो

हौसलों की पंक्ति में बस एक मुकाम मेरा हो।

बंदिशों की लड़ियाँ टूट कर बिखर पड़ें

ख़ामोशी की कड़ियाँ उफान बन बरस पड़ें

आत्मविश्वास के आगे सारे झूठ टूट पड़ें

कुछ ऐसी अखंड उस दीप की जोत हो

दीपों की इस अवली में एक दीप मेरा हो।

दिलों की कड़वाहट में मिठास भर सकूं

ऐसा उस दीप में मेरे प्यार का तेज़ हो

अधकच्चे रिश्तों में एक पक्का धागा मेरा हो

उमंगों की रोशनी में बस एक अमर जोत हो

दीपों की इस अवली में एक दीप मेरा हो।

मेरे भावनाओं के समंदर में इतना वेग हो

अंधकार के बीच भी मंजिल का प्रकाश हो

नयी सुबह का कुछ यूँ अलबेला अंदाज़ हो

दीपों की इस अवली में एक दीप मेरा हो

हौंसलों की पंक्ति में बस एक मुकाम मेरा हो।

Wednesday 25 August, 2010

चाहतें

ज़िन्दगी गर रेत का ढेला है,
तो उसे मुट्ठी में भरना चाहते हैं हम।
न हुए कामयाब तो क्या,
एक कोशिश फिर भी करना चाहते हैं हम।।
पतंग बन खुले आसमान में उड़ना चाहते हैं हम,
उमंगों के दम पर नए आयाम लिखना चाहते हैं हम।
कट जाने पर भी मुस्कुराना चाहते हैं हम,
टूट कर फिर से नयी उड़ान भरना चाहते हैं हम॥
दरिया में मदमस्त नाव बन मौज करना चाहते हैं हम,
बिना थमे सुध-बुध खोकर बहना चाहते हैं हम
डूब गए तो फिर से तर जाना चाहते हैं हम,
बस निरंतर मुश्किलों से लड़े प्रवाहित होना चाहते हैं हम।।
अगर रह गए कुछ पल अकेले तो,
तेरी बातों के आलिंगन में खोना चाहते हैं हम।
ज़िन्दगी गर एक लम्बा सफ़र है,
तो हमसफ़र तेरा साथ चाहते हैं हम।।
इन चाहतों के समंदर में गोते लगाना चाहते हैं हम,
बस अपने मन की आवाज़ सुनना चाहते हैं हम।
दुनिया नहीं, बस कुछ दिल जीतना चाहते हैं हम
कामयाबी के शिखरों पर अपना नाम लिखना चाहते हैं हम।।

Wednesday 18 August, 2010

ये कैसा मौत का तमाशा है

ये कैसा मौत का तमाशा है
पागलपन में डूबा जग सारा है
ढोंग करता मनु, हर हथियारा है
ये कैसा मौत का तमाशा है।
किसी की मौत यहाँ सुनहरा मौका है
अपना मतलब सिद्ध करने का पुलिया है
गुस्से को जाहिर करने का गलियारा है
ये कैसा मौत का तमाशा है।
ये कैसी खोखली श्रधांजलि है
आँखें है नम पर मन में मतलब की आग है
मौत के नाम पर खोखला अधिकार जगा है
ये कैसा मौत का तमाशा है।
मिडिया की होड़ में सच लगा है
दंगे में उसकी मौत का बदला छुपा है
कहो तो, सच्चाई के लिए, ये झगडा है
ये कैसा मौत का तमाशा है।
दुनिया का कैसा ये मृत्यु महोत्सव है
सच्चाई के नाम पर ढोंग का तांडव है
पागलपन में डूबा जग सारा है
ये कैसा मौत का तमाशा है।

Saturday 14 August, 2010

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा, दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा

ऊब गया है अब मन मेरा

रो उठा है हर मंज़र मेरा

कांप रहा है हर सच मेरा

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इन्सान तेरा।

राम की माला में रावण का मोती सिया

मंदिर की दीवारों को खून से रंगा गया

रहीम की अहिंसा में हिंसा को खोज लिया

निर्बल को कुचलने में सुकून हासिल कर लिया

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा।

मन में देवता, आचरण में राक्षस, हर मनु यहाँ

धर्म का नगाड़ा पीटता हर ढोंगी यहाँ

खोखले सिधान्तों को रटता हर कमज़ोर यहाँ

वसुधैव- कुटुम्बकम को छेदता हर जात- पात यहाँ

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा।

अपने ही खून को जूठे मान में बहा दिया

आज़ादी की नासमझी में बेटी को जल्दी ब्याह दिया

आवाज़ उठाने पर औरत को कुलक्षनी बना दिया

बेटे की अय्याशियों पर नादानी का पर्दा डाल दिया

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा।

इज्ज़त की चादर में अपनों की इच्छाओं को ढक दिया

समाज के साए में कई अरमानों को जला दिया

संस्कारों की नाव में कई इंसानों को डुबो दिया

सच्चाई के डर से अपना ईमान बेच दिया

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा।

चीख रहा है अब मन मेरा

व्याकुल है हर क्षण मेरा

मेरी आवाज़ दबाने को आतुर है जग तेरा

ये कैसा दुहरापन है ज़िन्दगी तेरा,

दोगलेपन में डूबा है हर इंसान तेरा।

Friday 13 August, 2010

मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?

कटी पतंग सा मेरा हर फ़साना क्यों है?
अधमरे सपनों का यहाँ बसेरा क्यों है?
हर दिशा में पसरा वीराना क्यों है?
बिखरा मेरी ज़िन्दगी का हर पल क्यों है?
मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?
दो पाटों के बीच ज़िन्दगी उलझी क्यों है?
अपनों के बीच ये दरारें क्यों है?
हमसफ़र और सहचर की ये दुविधा क्यों है?
निराशा के समंदर में गुम हौसला कहाँ है?
मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?
खुद को ढूढने की कोशिश अधूरी क्यों है?
खुद को कम आंकने की आदत क्यों हैं?
शब्दों की दुनिया में ये खालीपन क्यों है?
सोच की गहराई में ये खोखले सिद्धांत क्यों है?
मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?
मेरे सवालों का जवाब क्या है?
इस अंतर्द्वंद्व का अंत क्या है?
इस कलम की सोच क्या है?
इस अवनि की मंजिल क्या है?
मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?

Wednesday 28 April, 2010

कह दो किनारों से, हमें बह जाना है

कह दो किनारों से, हमें बह जाना है
रोके न हमें, हमें कुछ पाना है
तो क्या हुआ मंजिल ज़रा दूर है
अकेली नाव में एक ही पतवार है
कह दो उन उफानी लहरों से कोई
साहस ही हमारा तराना है
कह दो किनारों से, हमें बह जाना है।
है क्या किसी में इतना दम
रोक ले जो हमारे कदम
डाल दे रोड़े राहों में कोई हज़ार
झुकेगा न एक पल भी इस नाव का कहार
कर दो आगाह उन समुद्री दरिंदो को कोई
आत्मविश्वास से ही ये जग हारा है
कह दो किनारों से, हमें बह जाना है।

चाहे रोक ले इस ज़िन्दगी की सांस कोई
रोक पायेगा न इस सोच की रफ़्तार कोई
कैद कर ले मेरा हर पल कोई
न छु सकेगा मेरे स्वाभिमान को कोई
कह दो उन भयानक समुद्री राहों से कोई
इस कलम को बैखौफ बहते जाना है
कह दो किनारों से, हमें बह जाना है।

ढूंढ़ कर उस मोती को सजाना है अपने हार में
पाकर अमृत को सीना है अपने कंठ में
अपना परचम फहराना है समुद्र के गर्भ में
कह दो उन गरजती बिजलियों से कोई
समुद्र के दिल पर अपना नाम लिखना ही हमारा फ़साना है
कह दो किनारों से, हमें बह जाना है
रोके न हमें, हमें कुछ पाना है।