Sunday, 16 August 2009

मुक्तक

१) वो कहते हैं महखानों में महफ़िल सजा करती है,

पैमानों पर ज़िन्दगी बिका करती है,

हर जाम पर हसीं लुटा करती है,

अरे! झांक लेते हमारे दिल में,

उनकी हर प्रेरणा, हर तारीफ के लिए,

इस अवनि के शब्द बहा करते हैं,

विचारों के झरने कल- कल किया करते हैं।


२) कभी उन राहों पर महफ़िल सज़ा करती थी,
हर मंज़र पर लोगों की आहट थी,
हर कोने में पदचाप की आवाज़ थी,
आज वहीं मरघट सा सन्नाटा है,
भारत के हर गांव का यही नज़ारा है,
बंजर धरती, तन्हा बेसहारा है,
बस कुछ बूढी आंखों में उम्मीद का बसेरा है,
जाने कब कुछ बदलेगा,
ये इस कलम का सच्चा सपना है।

1 comment:

Nimisha1.blogspot.com said...

'budhi aankhon mein ummeed ka basera hai'..
'unki har prerna har tareef ke liye' .. love the lines ! great work.. ;)