Sunday, 16 August 2009

कश्मकश


हर शब्द को ज़ुबां नहीं होती,
मन के दर्पण की हर तस्वीर हसीं नहीं होती,
तनहा, खामोश जी लेते हम,
गर कुछ पाने की चाहत नहीं होती।

यों ही नहीं, हम खफा जुदा से हैं,
दिल में हर बात छुपाये से हैं,
कह पाते तो बता देते किसी को,
मगर कोई ऐसा दिल के करीब नहीं हैं।
किताब का हर पन्ना खुला है,
फिर भी हर शब्द अनपढ़ा सा है,
लिख देते ज़िन्दगी की हर कहानी,
मगर कोई सच्चा श्रोता मिला नहीं है।
मन में कई चाहतें, ख्वाहिशें हैं,
पर हर चाहत को मंजिल नहीं हैं,
यों तो मन को समझा देते हम,
जाने क्यों मुझे समझने वाला कोई मिला नहीं है।
इन कुछ सवालों का जवाब नहीं है,
ज़िन्दगी की इस कश्मकश का कोई अंत नहीं है

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