Sunday, 16 August 2009

मुक्तक

१) वो कहते हैं महखानों में महफ़िल सजा करती है,

पैमानों पर ज़िन्दगी बिका करती है,

हर जाम पर हसीं लुटा करती है,

अरे! झांक लेते हमारे दिल में,

उनकी हर प्रेरणा, हर तारीफ के लिए,

इस अवनि के शब्द बहा करते हैं,

विचारों के झरने कल- कल किया करते हैं।


२) कभी उन राहों पर महफ़िल सज़ा करती थी,
हर मंज़र पर लोगों की आहट थी,
हर कोने में पदचाप की आवाज़ थी,
आज वहीं मरघट सा सन्नाटा है,
भारत के हर गांव का यही नज़ारा है,
बंजर धरती, तन्हा बेसहारा है,
बस कुछ बूढी आंखों में उम्मीद का बसेरा है,
जाने कब कुछ बदलेगा,
ये इस कलम का सच्चा सपना है।

ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं


ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं,
बिन कहे सब कुछ बयां कर जाते हैं,
भीड़ में तन्हा कर जाते हैं,
तन्हाई में सागर से बह जाते हैं,
ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं।
आंखों में मोती से सज जाते हैं,
चेहरे पर गम की छाया दिखा जाते हैं,
ज़िन्दगी वीरान, बंजर कर जाते हैं,
अपनों का बेगानापन महसूस करा जाते हैं,
ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं।
जब बहते हैं, मन बहा ले जाते हैं,
ज़िन्दगी की उमंग चुरा ले जाते हैं,
नगमों से साज़ जुदा कर जाते हैं,
ज़माने की तल्खी दिखा जाते हैं,
ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं।
कभी मन मज़बूत कर जाते हैं,
कभी हर खुशी छीन जाते हैं,
कभी सपने चुरा ले जाते हैं,
कभी एक अजीब सा सुकून दे जाते हैं,
ये अश्क जाने क्या कह जाते हैं।

कश्मकश


हर शब्द को ज़ुबां नहीं होती,
मन के दर्पण की हर तस्वीर हसीं नहीं होती,
तनहा, खामोश जी लेते हम,
गर कुछ पाने की चाहत नहीं होती।

यों ही नहीं, हम खफा जुदा से हैं,
दिल में हर बात छुपाये से हैं,
कह पाते तो बता देते किसी को,
मगर कोई ऐसा दिल के करीब नहीं हैं।
किताब का हर पन्ना खुला है,
फिर भी हर शब्द अनपढ़ा सा है,
लिख देते ज़िन्दगी की हर कहानी,
मगर कोई सच्चा श्रोता मिला नहीं है।
मन में कई चाहतें, ख्वाहिशें हैं,
पर हर चाहत को मंजिल नहीं हैं,
यों तो मन को समझा देते हम,
जाने क्यों मुझे समझने वाला कोई मिला नहीं है।
इन कुछ सवालों का जवाब नहीं है,
ज़िन्दगी की इस कश्मकश का कोई अंत नहीं है